लफ़्ज़ों की अब कमी है चल घर अब चलें
कुछ रात यह घनी है , चल घर अब चलें
दम घुटता है बाहर का यह खुलापन देख
अपना ही घर है अच्छा अन्दर अब चलें
लूं एक जाम और यह मेरे बस में नहीं
माना नशा कुछ कम है मगर अब चलें
नज़रों को अपनी ज़रा काबू तो कीजिये
यहाँ पर उधर चलें वहां पर इधर चलें
ईद-ओ-दीवाली पर तुझे मैं क्या दूं
मिठाइयों से ज़्यादा आजकल ज़हर चलें
थक के रुके को कभी हारा ना समझना
मैं चलूँ वहाँ तक जहाँ तक सफ़र चलें
-अमित
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