Thursday, June 14, 2007

I think its time to go

लफ़्ज़ों की अब कमी है चल घर अब चलें
कुछ रात यह घनी है , चल घर अब चलें

दम घुटता है बाहर का यह खुलापन देख
अपना ही घर है अच्छा अन्दर अब चलें

लूं एक जाम और यह मेरे बस में नहीं
माना नशा कुछ कम है मगर अब चलें

नज़रों को अपनी ज़रा काबू तो कीजिये
यहाँ पर उधर चलें वहां पर इधर चलें

ईद-ओ-दीवाली पर तुझे मैं क्या दूं
मिठाइयों से ज़्यादा आजकल ज़हर चलें

थक के रुके को कभी हारा ना समझना
मैं चलूँ वहाँ तक जहाँ तक सफ़र चलें


-अमित

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